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द्वितीयशाखा-रौद्रध्यान.
मन कल्पित, अनेक शास्त्र दया रहित रचकर, मन माना मत चलावू , लोकोकों वाक्य चातुरीसे मोहित कर, उनके पाससे सुन्दर, कन्या, रत्न, धन, धान्य गृह, (घर) ग्रहण करूं, और मेरा जीवन सुखे चलावू. इत्यादि असत्य विचार, जिसके अंतः करणमें होवे, उसे मदोद्वत मृषानुबन्ध रौद्रध्यानका मंदिर (घर) समजना चाहिये. __ मृषा नही रक्खा, अर्थात 'झूटेने, जक्तमें बुरा पदार्थ कुछ बाकी रक्खा नहीं,' सब उसनेही ग्रहण कर लिया. ऐसा खराब झुटा पना हैं, और छोटे, बडे, सब झूटकों खराब समजते है, क्यों कि झूटा 'कहनेसे, सब चिडते हैं; तो भी आश्चर्य है की फिर उसे नहीं छोडते हैं, देखिये इस ध्यानकी सत्ता कैसी प्रबल हैं, की खराब काममेही आनंद मानाता हैं. किनेक अपनी चातुरी बताते हैं, की, हम कैसे विद्वान है. कैसा परपंच रचा, की-अंग हीन, रुपहीन, इन्द्रियहीन, औरगुणहीन कंन्याको भी कैसे बडे स्थान दिलादी; और नगदी इल्ने रुपे दिला दिये. बुढेका, रोगिष्टका, नपुंशकका कै