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तृतीयशाखा-धर्मध्यान २२७ जित्नी शिघ्र करलीजीये, की इसे छोडती वक्त पश्चाताप नहीं करना पडे...
जैसी सरीरकी अनित्यता है, वैसींही कुटंबकी भी समजीये, क्यों कि मात पितादी स्वजन भी, उदा रिकही सरीरके धरण हार है, अपने पहले आये, माता, पिता, काका, मामा, वगैरे, अपने बरोबर आये, भाइ, बेन, स्त्री, मित्र, वगैरें अपने पीछे आये, पुत्र, पौत्रादिक और भी जक्त वासी जन, देखते २ आय खुटे चल गये हैं, चल रहे है, और रहे सो एक दिन सब चले जायँगे, “जो जन्मा है, सो अवस्व मरेगा" इस लिये कूटंव परिवार को भी अनित्य समजीये.. ... जैसा कुटम्ब अनिता है, तैसे धनभी अनित्य है, इसे 'दोलत' कहते हैं, अर्थात आना और जाना ऐसी दो लत (आदत) इसमें हैं, तथा पोशकको क्षिण में हसाना और क्षिगनें रूलाना ऐसी दो आदतें हैं. यह किसीके पास स्थिर नहीं रहती है। . "जर जोरु और जमीन, किनकी न हुइ यह तीन” जरमनि तीजोरीयोंमें, खब उंडे खड्डेमें या नग्गी समशेरोंके पहरेभी, खूब बंदो
* पृथवी की हड्डी आदी-पाणी का रक्त मुत्रा दी-अग्नी का जठाराग्नीयादी वायूका श्वाशोश्वास और आकास रुप पोलार एपंच भूत