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२८६ ध्यानकल्पतरू. श्लोक' पदस्थं मंत्र वाक्यस्थं, पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तम् ५ रुपस्थं सर्व चिद्रुपम् , रुपातीतं निरञ्जनम्
__ब्रहद्रव्य संग्रह. अर्थ- १ मूल मंत्राक्षरोका स्मरण करना, सो पदस्थ ध्यान.
२ स्व आत्मके पर्यायका विचार करना सो पिण्डस्थ ध्यान .
३ चिदृरूप अँत भगवंतका ध्यान करना सो रुपस्थ ध्यान.
और ४ निरंजन निराकार सिद्ध परमात्म का ध्यान करना सो रुपातीत ध्यान.
प्रथम पत्र-पदस्थ ध्यान.
१ "पदस्थ ध्यान" मन्त्र (मनको त्रप्त करे ऐसे पद (वाक्य) सो इस जक्तमें मतांतरो की भिन्नताले इष्ट देवो विषय श्रधा में भी भिन्नता हो गई है. इसी सबब से भिन्न २ मतावलम्बीयों, भिन्न २ देवो के नामसे मंत्र रचना कर, उनका स्मरण करते हैं. जैसे-"उँ नमः शिवाय” “उँ नमो वासुदेवायः वगैरे. तैसे जैन मतमें माननिय, अनादी सिद्ध देवाधी देव, पंच परमेष्ठी हैं. उनका स्मरण सर्वोत्तम हैं, वो स्मरण बहुत प्रकारसे किया जाता है. यथा