Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

Previous | Next

Page 354
________________ ३२८ ध्यानकल्पतरू. उपजावें, और उसका अपनेही मनसे समाधान करते जाय ऐसे उसमे तल्लीन बन, फिरे अपनी आत्मा की तर्फ लक्ष पहोंचावे, की यह प्रत्यक्ष दिखता पुद्गल पि ण्ड, और अन्दर रही आत्मा की चैतन्यता, दोनो अलग २दिखती हैं प्रत्यक्ष भाष होते हैं. परन्तु अनादी काल की एकत्रताके कारण से, वह्यमें एक रुप दिख. तेहैं, तो भी निज २ गुणमें दोनो अलगर हैं. जैसे क्षी र नीर (दुध पाणी) मिलनेसे एक रूप हो जाता है. तोभी दूध दूध के स्वभावमें है. और पाणी पाणी के स्वभावमें हैं. जो एकत्र होय तो हंसके चुंचके पुद्गल के प्रभाव से अलग २ कैसे हो जाते है. ऐसेही देह (सरीर) और जीव, तथा कर्म और जीव, ऐक्यता रूप दिखते हैं. परन्तु चैतन्य का चैतन्य गुण, और जडका जड [ण, निज २ सत्तामें अलग हैं, सो अब मुजे दोनो की पृथकताका भाष हुवा है. अब अनादी एकत्व वृतीका त्याग कर, निज चैतन्य स्वभावमें स्थि रता होवें, द्वादशांग वाणी के पाणी रूप समुद्र में गोता खावे. यह ध्यान चउदे पूर्वके पाठी कोही होता हैं यह ध्यान मन बचन काय के योगों की द्रढता से होता हैं यह ध्यान ध्याती वक्त योगो का पटला होता ही रहता है एक योगसे दूसरे में और दूसरे से,

Loading...

Page Navigation
1 ... 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388