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३३८ ध्यानकल्पतरू. भस्म भूत होगइ, परन्तु उनोने नाक में शल्य ही न ही डाला खन्धक ऋषि राज के सर्वं सरीर की त्वचा (चमडी) जैसे मरे पशु क चर्म उदेड तैसे उदे डी (निकाल) डाली, वहां रक्तकी प्रनाल वह गइ परन्तु. उन्होने जरा सी साट (शब्द) भी नहीं किया स्क न्ध ऋषिके५०० शिष्यों कों, तैली तिल कों पीलता हैं त्यों घानी में पोल डाले, परन्तु वो नेत्र में जरालाली भी नहीं लाये, मेहतारज ऋषिवरके सिरपे आला धर्म बान्ध, धूप मे खडे कर दिये. जिससे जिनकी आँखो छिटक पडी; परन्तु मनमें जरामी दुभाव नहीं लाये, ऐसे२ अनेक दाखले शास्त्रमे दिये हुये हैं. ऐसे महान घोर उपसर्ग में प्रणामोंकी धारा जिनोने एकसी बनी रक्खी, यह सहज नहीं है. तो मोक्ष प्राप्त करनाभी सहज नहीं है. उन्ह महात्मा को यही निश्चय होगया था की “नत्थी जीवस्स नासत्थी” जीव अजरामर है. इसका नाश कदापि होताही नहीं हैं. जो जले गले हैं वो अलगही है. और मै अलगही हूं. फक्त द्रष्टा हूं ऐसे प्रणामो की स्थिरी भूत एकत्र धारा प्रवृतनेसे. उन्होने किंचित कालमे अनंत कर्म वर्गणाका क्षय कि या. अनंत, अक्षय, अव्याबाध मोक्षके सुख प्राप्त किये. ..