Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 371
________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३४५ शुक्लध्यानी ने स्वभावसे जडा मूलसे उच्छेदन कर, सं तोषमें संस्थित हुये हैं. ज्ञानी ज्ञानसे प्रत्यक्ष जानते हैं की इस जक्तमें कोइभी ऐसा पदार्थ नहीं है, की जिसकी मालकी अपने जीवनें नहीं करी, या उनका भोगोपभोग नहीं किया, अर्थात् सब पूद्गलकी मालकी अनंत वक्त कर आया है, और सव पुद्गलोंका भोगभी अनंत वक्त ले आया है. अश्चर्य यह है कि, एक वक्त अहार करके निहार करी हुइ वस्तुकों देखते ही, नणा, दुगंच्छा उत्पन्न होती है, और जिन वस्तुओंका अनंत वक्त अहार कर निहार कर आया उन्होंकाही पीछा भो गोपभोग करने बहुतसे जीव तरस रहे है, तडफ रहें है, उनकी त्रष्णामे व्याकुल हो रहें है, त्रप्ती आइही नहीं है, तो अब क्या बिना संतोष किये कदापी त्रप्ती आ वेगी? हा हा! क्या जब्बर मोहकी छटा! के जीवों बिलकूल बे विचार बन रहेहै, और इस वृतमान कालके सरीर के पुद्गल, तथा पहले धारन किये हुये, सब स. रीरके पुद्गल जित्ने जगत्में जीव है, उन सबका भक्ष बना है. सब ने अहार कर के निहार कर दिया है. तैसेही जब जीवोंके धारण किये सरीरके पुद्गलोंका, आपन भी अनंत वक्त भक्षण कर लिया, जगत् की सब ऋद्धिके मालक अपन बने, और जगत्के जीवके

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