Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

Previous | Next

Page 381
________________ चतुर्थशाखा -शुक्लध्यान. ३५५ मात्म स्वभावका जो सम्यक श्रधान ज्ञान और किया उससे उत्पन्न अविन्यासी अनन्द रूप एक लक्षणका धारक सुखमृतको भोगवता है. सारांश - जो स्वभावसे उत्पन्न हुये सुखामृत के. भोजनकी अप्राप्ती से, आत्मा इन्द्रिय जनित सुखको भोगवता हुवा, संसारमें परिभ्रमण करता है; और स्व स्वभाव उत्पन्न हुये, इन्द्रियोंके अगोचर सुख है, सो ग्रहण करने योग्य है शुक्लध्यानके ध्याता उन्हे स्वभाव सेही ग्रहण करते है, जिससे संसार रूप वृक्ष शुभाशुभ कटु मधु, उच्चता-नीच्चता, रूप फलोंका दाता पूहल प्रणतीसे प्रणमा हुवा जो स्वभाव है उसका सहजही त्याग हों जाता है. शुद्ध आत्मानंद चैतन्य मय स्व भावमें सदा रमण करतें है. तृतीय पत्र- "अनंतवृतीयानुप्रेक्षा' • ३ अनंत वृतीयानु प्रेक्षा - अनंत संसार मे परि भ्रमण करनेकी जो प्रवृती है. उससे निवृतनेका स्वभाविक ही विचार होवे, की इस संसार में अनंत पुगल प्रावृतन किये, वो ८ प्रकारसे होता है, १ द्रव्यसे बादर पुगल प्रवृतन सो उदारिक वैक्रय, तेजसे, कारमाण मन, बचन, और शाश्वोश्वास यह ७ तरह के है,

Loading...

Page Navigation
1 ... 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388