Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 379
________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३५३ बीगाडते हैं, ऐसेही कर्म सम्बन्ध भी जाना जाता है, व्यवहार में कर्म के कर्ता पुद्गल हैं. जैसे त्रीयोग रहित शुद्ध आत्मा की जो भावना हैं, उस से बे मुख होके, उपचरित असद्भुत व्यवहार से ज्ञाना वर्णियादी द्रव्य कर्मोंका, तथा उदारिक, वेक्रय, और.अहारिक.यह तीन सरीर, अहार, सरीर, इन्द्र, शाश्वोश्वास, मन. और भाषा, यह पर्याय, इत्यादी योग्य से जो पुद्गल पिण्ड नो कर्म है, उनकी तथा उसी प्रकार से, उप चरित असभ्दूत वाह्य विषय, घटपटादी का भी येही कर्ता हैं। यह तो व्यवहार की व्याख्या कही. अत्र निश्चय अपे क्षा से चैतन्य कर्मका कर्ताहैं, सो इस्तरह की-रागादि विकल्प रूप उदासी से रहित, और क्रिया रहित, ऐ से जीव ने जो रागादी उत्पन्न करने वाले कर्मों का उपारजन किया, उन कर्मों का उदय होने से, अक्रिय निर्मल आत्मा ज्ञानी नहीं होता हवा,भाव कर्म का या राग द्वेष का,कर्ता होता हैं. और जब यह जीव, तीनो योग्यके व्यवहार रहित, शुद्ध तत्वज्ञ एक स्वभाव में परिणमता हैं, तब अनंत ज्ञानादी सुख का, शुद्ध भावों का छद्मस्त अवस्था में भावना रूप विविक्षित, - एक देश शुद्ध निश्चय से कर्ता होता हैं, और मुक्त अवस्था में तो, निश्चय से अनंत ज्ञानादी शुद्ध भावों

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