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३५४ ध्यानकल्पतरू. का कर्ताहीहैं.
इस लिये शुद्धाशुद्ध भावोंकी जो प्रणती है. उसका कर्ता जीव जाणना. क्यों कि नित्य निराकार निष्क्रिय, ऐसी अपनी आत्म स्वरूपकी भावना से र. हित जो जीव है, उसीको कर्मका कर्ता कहा है, पर प्रणितीही शुभाशुभ बन्धका मुख्य कारण है. जिस. से निवृत अपनी आत्मामें ही भावना करे, और व्यव हारकी अपेक्षासे सुख और दुःख रूप पुद्गल कर्मोका भोगवता है. उन कर्म फलोंका भुक्ताभी आत्माही है. और निश्चय नयसे तो, चैतन्य भावका भुक्ता आत्मा हैं, वो चैतन्य भाव किस सन्बन्धी है, ऐसा विचार करीये तो, अपनाही सम्बन्धी है. कैसे है की, निज शुद्ध आत्माको ज्ञानसे उत्पन्न हुवा, जो परमार्थिक सु ख रूप अमृत रस उस भोजनको न प्राप्त होते, जो आत्मा है, वो उपचारित असद्भूत व्यवहारसे इष्ट त था अनिष्ट, पांचो इंद्रिय के विषय से उत्पन्न होते हुये सुख, तथा दुःख भोगवता है, ऐसेही अनुपचरित, अ सद्भूत व्यवहार से अंतरंग में सुख तथा दुःखको उ त्पन्न करने वाला, द्रव्य कर्म सत्ता असत्ता रूप उदय है, उसको भोगवता है, और वोही आत्मा हर्ष तथा शोक को प्राप्त होता है, और शुद्ध निश्चय में तो प्र