Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 384
________________ ३५८ ध्यानकल्पतरू सद्भावसे पडतीहैं. उसज्ञानके अप्रतििित ध्यानमें सदा मग्न हो रहते हैं. चतुर्थ पत्र-"विप्रमाणु प्रेक्षा" - ४ विप्रमाणु प्रेक्षा-३४३राजात्मक रूप विश्वोदर संपूर्ण सचेतन अचेतन पदार्था कर भरा हैं, उ. नमें के पुदलों क्षिण में विप्रायास पाते हैं, जैसे महि, के पिण्ड के समोह में से कुम्भार अच्छे, बुरे, छोटेबडे' अनेक प्रकार के भाजन बनाते हैं. तैसेही म. नुष्याकार, पशुवाकार, नाना प्रकार के चित्र बनाता है, उन्हे देखके बहुत लोक किनेकको अच्छे कहते हैं, किन्नेक कों बुरे कहते हैं, एकही वस्तु से उत्पन्न होते है, वो कुछ वस्तुका फेर नहीं है. फक्त द्रष्टीकाही फेर है. तैसेही सर्व लोक जीव अंजीव करके भरा है, उन अनंत प्रमाणुओंको समोहसे पंच सम्बायकी प्रेरणासे पुरण गलन, (मिलन विछडन) होते हुये, अ नेक आकार भावमें प्रगमते है. उसमे अनेक पुदलों की सामान्यता विषेशता, अनंत कालसे होतीही रह ती है. और इसही लोकमें राग द्वेषके पुद्गल भी पूर्ण भरें हैं, वो सकर्मी जीवोंकें चमक लोहकी तरह अक र्षण होके लगते है. और मिथ्यात्व तथा मोहकी श

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