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ध्यानकल्पतरू.
विषय कषायादी प्रणती कर्म जनित हैं, और कर्म पुदल रुप हैं, आत्मासे उसका स्वभाव विप्रित हैं. और इसीही लिये निन्दा पात्र हैं, उनकी निन्दा तो हो. वेगी. तूं चैतन्य रुप उनसे अलग हो फिर उनकी प्रणती में प्रणम मलीन क्यों होता हैं, बुरा क्यों मानता हैं, जिनको जग बुरा कहते हैं, उन्ही को वो बच न लगो. और उन्ही दुर्गुणोका नाश होवो, की जिस से मेरा भला होवे. ऐसी भलाइ होनेके स्थान, कोण सुज्ञ बुराइ करेगा, अर्थात् कोइ नहीं. ऐसे और इससे भी अत्युत्तम विचार अब्बल सेही शुक्लध्यानी की आ मामें ठसे रहते है, और प्रत्यक्षमें देख रहे है की, क्रो ध विश्वानल रूप हों, जीवोंको छिन्न भिन्न कर रहा है,
और मेरी आत्मा उस लायसे अलगहो, ज्ञानादी गुण रूप समद्र के महा ओघमें ड्रब रही है, इसे वो अग्नी स्पर्य करही नहीं सक्ती है. आंच लगही नहीं सक्ती है, सदा संबड, निबुड, शांत शीतली भूत अखन्डानन्द में रमते है.
द्वितिय पन-निर्लोभ”
२मुत्ती-मुक्त हुये, छूटगये, अर्थात् लोभ त्रष्ण रूपी फासमें सब जगत् फस रहा हैं. उस फास को