Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 368
________________ ३४२ ध्यानकल्पतरू. . क्षमा श्रमण क्षमा स्वभावमें, स्वभावसे रमण करते अन्यकी तर्फसे, पर पुनलोंसे, या स्व प्रणतीकी विप्रीतता से, जो चितको क्षोभ उपजे, ऐसे पुद्गलोंका सम्बन्ध मिलनसे निजात्म के, या पर आत्मके, ज्ञान दर्शन चारित्र रूप पर्यायकी, संकल्प विकल्पता कर घात करे नहीं, करावे नहीं, करतेको अच्छा जाने नहीं अपने क्षमा रूप अमुल्य गुणका कदापि नाश होने देवे नहीं, शुभाशुभ संयोगोंमे चित वृतीको स्थिर रक्खे, और पुद्गलोंके स्वभावकी तर्फ द्रष्टी रखके विचारे की जैसा २ जिस २ वक्त, जिन २ पुद्गलोंका जिस तरह प्रणती में प्रगमनका द्रव्यादिक संयोग होता है, वो उसी वक्त प्रगमें विन कभी रहताही नहीं हैं. यह ज गतका अनादी स्वभाव हैं. शुक्लध्यानीकी इस स्वभाव से प्रणति स्वभाविक विरक्त होनेसे वो स्वभाव उनमें नहीं प्रणमता है, ऐसे अनेक प्रणतीयों जक्त में भ्रमण करती हुइ वितरागीकी आत्मका स्पर्य कर खराब न हीं कर शक्ती है. जगत्का जो कार्य है सो तो, अनादी से चला आता हैं, और अनंत काल तक चलाही करेगा. मन, बचन, कायाके, शुभाशुभ पुद्गलोका चक्कर भ्रमताही रहता हैं, मिथ्या भ्रमसे भ्रमित जीव, दुविचार, दुउच्चार, और दुआचार, द्वरा; करना, कराना,

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