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चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. 8t कोइ पण्डित कहें. तो वो चिडता हैं. निरधन को श्री मंत कहने से वो बुरा मानता हैं, कहता है क्या हमा री मस्करी करते हो. बस तैसेही ज्ञानी के कोइ गुण ग्राम करे तो वो योंही विचार ते हैं, यह संपूर्ण गुण तो मेरी अत्मा में ही नहीं, तो मुजे उन बचन को सुण अभीमान करने की क्या जरुर हैं. यह मेरी पर. संस्या नहीं करता हैं, परंन्तु मुजे उपदेश करता है, की, सत्य सील, दया, क्षमा, दी गुण तुम स्विकारो! शुक्ल ध्यानी सर्वो तम गुण संपन्न हो के भी, उन्हे गुण का गर्व किंचित मात्र कदापी नहीं होता है, इस लिये वो सदा निर्भीमानी रहते हैं. तथा विचारना चाहीये की, जो गुण ग्राम करते हैं, वो तो गुण के करते हैं,
और उसका अभीमान गुणों को तो होताही नहीं हैं, फिर बीच में मुजे करने की क्या जरुर हैं, संसार में सुनते हैं की, अमुक ने अमुक अच्छी वस्तु की सरा. वणा (परलंस्था) करी जिस्स से यह बिगड गइ (नि. जर लग गइ ) बस तैलेही गुणानुवाद करने से तूं पोमायगा तो तेरेइ गुणों का खराबा होगा. ऐसा जान के खराबा क्यों करना.
औरभी जो सगुणोंकी प्राप्ती हुइ है, वो आत्म सुधारा करने हुइ है, और उससे बीगाडा करना यह