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३४८ . ध्यानकल्पतरू. करता है, ऐसा निश्चय होनेसे शुलभ्यानीके -हदयसे माया स्वभावसेही नष्ट होती है. ... और भी शुकन्यानी विचारते हैं, की कपट कि के साथ करे, क्योंकि चैतन्यके निज गुण तो कपटसे वंचित (छलित) नहीं होते हैं, आत्माका निज स्वभा व तो सरल शुद्ध पवित्र हैं, उसे छोड मलिनतामें पड नाही अज्ञान दिशा है. ऐसा जान, शुक्लध्यानी स्वभासेही, परम ज्ञानी, परमध्यानी, निष्कपटि, निर्विकार आत्म गुणमें सदा लीन. वाह्याभ्यांतर शुद्ध सरल प्रवृती रहती है. .
चतुर्थ पत्र "मार्दवः” मदव-मार्दव किया हैं, मान का. शुक्ल ध्यानी का, अभिमानका. मर्दन स्वभाव से ही होता हैं, क्यों कि वो जानते हैं, की. इस जक्त में बडा मीठा, और बडा जब्बर शत्र "अभीमान" हैं, उंचा चडा के नीचे डाल देता हैं. देवलोक के मुख में जो गर्क हो रहे है, उन्हे तिथंच गति में डालता हैं, इत्यादी अनेक बिटंबना अभीमान से होती है, और भी बिचारते हैं, की अभीमान किस बात करना, तथा मान यह हैं क्या? देखीये. अब्बी किसी निरक्षर. मुर्ख मनुष्य को