Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

Previous | Next

Page 372
________________ ३४६ ध्यानकल्पतरू. दास अपन बने, अनंत पर्याय रूप इस संसार में अपन प्रणम आये, और सर्व संसार पर्याय अपन में प्रणमी, सर्व खाद्य खाये, सर्व पेय पीये, सर्व भोग भोगवे, परन्तु गरज कुछ नहीं सरी, आखीर वैसे वै से. इस लिये मै न किसका हुवा, न मेरा कोई हुवा, न मुजे कोइने खाया, और न मैने किसीको खाया. पुनलही पुगलका भक्षण करता है, और छोड़ता है. और वो भाव पुगलोंमें ही प्रगमते हैं. तैसेही निर्गमते है, मुजे उससे जरूरही क्या, मै चैतन्य, यह पुद्गल, ज्यों नाटकिया नाना तरह का रूप धारण कर प्रेक्षक को खुश करने अनेक चरित्र करता है. रोता हैं, हंसता है, वगैरे, परंतु प्रेक्षक को उसके झगडे देख सुख दुःख अनुभवनेकी क्या जरूरत है, तैसेही यह जगत रूप नाटकका में प्रेक्षक हूं. इसका विचित्रता देख मु जे उसके विचारमे लीन हो, दुःखी बनने की कुछ जरूरत नहीं है. यह भाव या इससे भी अत्युत्तम भाव शुल ध्यानीके ह्रदय में स्वभावसेही प्रवृतते है, जिससे सही सर्व सङ्ग परित्यागी हो सिद्ध तुल्य सदा निर्छित भावमें त्रतपणें आत्म स्वभावमें रमण करते है. ed*20

Loading...

Page Navigation
1 ... 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388