Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 373
________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३४७ . तृतीय पत्र-“आर्यव” २ अजव-आर्जव-सरलता युक्त. प्रवृतनेका स्व. भाव, शुक्लध्यानीका स्वभाविकही होता है. सुयगडांग सूत्र में फरमाया है. की 'अजुधमं गइ तच्चं, अर्थात् आर्य सरल आत्माही धर्म मार्गमें गति प्रवृती कर शक्ती हैं, ज्ञानी समजते हैं, की वक्र आत्माका धणी, अन्यको ठगने जाते अपही ठगाता है, और एक वक्त ठगाया हुवा,प्राणी कर्मानुयोगसे भवांतरोकी श्रेणीयोंमें अनंत वक्त ठगाता है, सर्व पुद्गल परतणी में प्रणमे हुये पदार्थ कुटिलता से भरे हुये हैं. सकर्मि आत्मा उनमें प्रणाम प्रवृताती हुइ, उनमेंसे पुद्गलोंका अकर्षण कर उस रूप बनती हैं उसे 'मायाशल्य' कहते है, मयाशल्य मिथ्या दर्शनका मूल है, मायाशल्यसे आत्माके ज्ञानादी गुणका अच्छादन होता है. ठांकता है, 'शल्य' काँटे को कहते है, जैसा सरीरके अन्द र रहा हुवा काँटा तन्दुरुस्तीकी हरकत करता है, तैसें मायारूप शल्य (काँटा) जिनके हृदय से नहीं निकला हैं, उनके ध्यान में दुरस्ती न रहती है, जैसे सीधे म्यान में बांकी तरवार प्रवेश नहीं करती हैं, तैसेही वकृ प्रक्रतिका धणीके -हदय में शुक्लध्यान प्रवेश नहीं

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