Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 376
________________ - ३५० ध्यानकल्पतरू. कैसी जब्बर भूल. इत्यादी निश्चय शुक्लध्यानी पुरुषों को स्वभाविक होनेसे सदा स्वभाविक उनकी आत्मा निर्भिमानी, नम्र भूत हुइ है. ... इन चार वस्तुओंका आलम्बन शुक्लध्यानीको सहज स्वभाविक होनेसे अखंड अप्रति पाती ध्यानमें रहते है. चतुर्थप्रातशाखा “शुक्लध्यानस्यअनुप्रेक्षा" सुक्कसणं झाणस्स, चत्तारी अणुपेहा, पन्नंता तंजंहा अवायाणुप्पेहा, असुभाणुप्पेहा, अ णंतवित्तीयाणुप्पेहा, वीप्परीणामाणुप्पहा. . अर्थात्-शुक्लध्यान ध्याताकी ४ अनुप्रेभा विचारना १ अपायानुप्रेक्षा=दुःखसे निर्वृतनेका बिचार. २ अशुभानुप्रक्षा=अशुभ प्रवृती आदीसे निर्वृतने का विचार. ३ अनंत वृतीयानुप्रेक्षा=अनंत प्रवृतीने निर्व. तने का विचार. और ४ विप्रामाणानुप्रेक्षा=विप्रित प्र णाम सेनिर्वृतनेका विचार. यह ४ प्रकारका विचार शुक्लध्यनीका स्वभाविक होता है.

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