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चतुयशाखा-शुक्लप्यान. २०९ सुवर्ण रत्नके भूषणों से लदे हुये फिरते हर्ष मानतेहै. वितरागी पुरूष यथार्थ द्रष्टी से देखते हुये विभुषित पे
और नग्न पे स्वभाव से ही रागद्वेष रहित मध्यस्थ भवमें रहते हैं. और जित्ने जक्तमें दुःख है, वे सब काम भोग से ही उत्पन्न होते हैं और जो काम भोग का अर्थि हैं वोही अनंत दुःख मय संसार भार को वहाता है-उठाता हैं, काम भोग की अभीलाषा वालाही दुःख पाताहैं यह सर्व तमाशा प्रत्यक्ष जगत् में दिख रहा हैं, ऐसा जाण ज्ञानी महात्मा स्वभा से ही सर्व अभीलाषा रहित हो शांतबनें हैं, सर्वथा मोहका नाश होने से वितरागी बने हैं.
तृतीयप्रातशाखा शुक्लध्यानस्यआलम्बन सूत्र-सुक्करसणं झाणस्स चत्तारी आलंबणा पन्नंते तंज्जहा
खंत्ती, मुत्ती, अज्जव, मद्दव.
अर्थ-शुक्लध्यान ध्याता को चार प्रकारका आधार हैं.
१ क्षमका, २ निर्लोभताका, ३सरलताका, और ४ नम्रताका.
प्रथम पत्र- 'क्षमा"