Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 365
________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३३९ चतुर्थ पत्र-“अमोह". .४ अमोह-अर्थात् शुक्लध्यानी स्वभाव सेही मोह रहित निर्मोही होते है. “मोह बन्धति कर्माणी, निर्मोहो वीमुच्यते” अर्थात्-मोह कर्म बन्ध करता हैं और निर्मोहपणा कर्म के बन्धन से छुडाता है, ऐसा निश्चय होनेसे शुक्लध्यानी के निर्मोही अवस्था स्वभाव सेही प्राप्त हो जाती है, मोह उत्पन्न करने जैसा कोइ भी पदार्थ उनको भाष नहीं होता है. उत्तराध्येयनजी सुलमें चितमुनीश्वरने कहा है. गाथा-सव्वं विलं वियं गीय, सव्वं नर्से वीडं वियं; सव्वं आभरण भारा, सव्वे काम दुहा वहा.. अर्थात="सर्व गीत-गायन है सो विलाप जैसे हैं,” क्यों कि विलाप शब्दका और गीत शब्दका उ. त्पन्न होनेका और समाव होनेका स्थान एकही है. [मुख और कान] और दोनोही राग द्वेषकी प्रणतीसे पूर्ण है, गायन भी प्रेम का दर्शक और उदासी का दर्शक दोनो सरहका होता है. तैसेही रूदनभी प्रेम दर्शक और उदासी दर्शक दोनो तरहका होता है, यह भाव मोह गीर्ध जीवके मानने उपर है. गीतों मोह मद से भरे हुये, कर्म वीकार से उद्भवे हुये, चितको

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