Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 363
________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३३७ अर्थात्-कवाय नष्ट होने से श्रमण हुये, स्वयं आत्मा का सधने से संयती हुये, रागादी रिपुके नष्ट होने से दमित हुये, ऐले ऋषीराज माहाराज धीराज किसीभी कर्मोदय के योग से कोइ किसी प्रकार का दुःख दे, प्राणांत होवें ऐसा उपसर्ग करे, तब वो यह विचार करें की, मेरी आत्मा अनुपसर्ग है. अखंड अविन्यासी नवंछिदनति शस्त्राणी नैवंदहति पावकं"यह आत्मा शस्त्रसे छेद भेद जाती नहीं हैं. अग्नीमे जले नहीं, पा. णी में गले नहीं. इस लिये मुजे किसा भी प्रकार का उपसर्ग कोइ भी उपजाने स्मर्थ नहीं हैं, “नत्थी जीवस्स नासत्ती” जीवका नाश कदापी हेही नहीं, इ. स लिये में अम्मर हूं. यह मनुष्य पशु या देव जिसका नाश कर ने प्रवृत हुये हैं, वो तो नाशिवंतकाही नाश करते हैं. आज कल या किसी भी अगमिक का ल में, इसका नाश जरूर ही होगा. मै ने क्रोडोयत्न किये तो रहे नहीं, ऐसा निश्चय जिन्नकी आत्मा में होने से उन को किसी भी प्रकार की बाधा पीडा दुःख मालुम पड़ताही नहीं हैं.यथा द्रष्टान्त जैसे गज सुकुमल मुनिश्वर के सिर (मस्तक) पे खीरे (अग्नीके अंङ्गारे) रखदिये. जिस से तड२ करती खोपरी जलके

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