Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 361
________________ उपशाखा शुद्धध्यान. ३३५ लता है. क्यों कि वो पुद्गलीक स्वभावसे स्वभावेही अलग है. द्वितिय पत्र-"विउत्सर्ग". __ २ विउत्सर्ग-शुक्लध्यानी सदा सर्व सङ्गके त्या गी स्वभावसे ही होते हैं. श्री कपिल केवलीजीने फरमाया हैगाथा-विजहितु पुव्व संजोगं, नसिणेह कहि विकुवेजा, असिणेह सिणेह करेहिं, दोस पदोसेहिं मुच्चए भिल्लू सव्व गंथ कलहंच, विप्प जहे तहा विहं भिख्खू ... सव्वेसु काम जाएसु पास माणो न लिप्पई ताइ. ... अर्थ-सर्व ग्रन्थ-अर्थात् वा संजोग पूर्वात मात पितादिका पश्चात स्वशुर पक्षका;और अभ्यंतरराग द्वेष का तथा कषाय रूप प्रणतीका यह दोनो महा क्लेशका कारण भाष (मालम) हुवा, जिससे विप्य जहितु दो नो प्रकारके सम्बन्ध से स्वभाविकही ममत्व दूर हो गया, सम्बन्ध छूट गया. और शब्दादी सर्व काम. तथा गंधादी सर्व भोग पाश (बन्धन) जैसे मालम हो नेसे, उनसे स्वभाविकही अलिप्त हुये, राग द्वेष रहित हये, (पुव्व संजोग) यह पुवे अनादी अनंत परिभ्रमण कराने वाले सम्बन्धसे पीछा कदापि कोइभी प्रकारसे

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