Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 362
________________ ३३६ ध्यानकल्पतरू. सम्बन्ध नहीं करे, और ( असिणेह सिणेह करेहिं ) अर्थात अस्नहीयोसे वतिराग से स्नेह करे, की जो कः दापि क्लेश और बन्धन का कर्ता नहीं होता है, सदा वाह्याभ्यंतर शांती और मुक्ती का दाता है. ऐसा स. म्बन्ध स्वभाविक होनेसे सर्वथा राग द्वेष की प्रणती रहित हुये, उससे ज्ञानादी त्रि रत्नकी ज्योती स्वभा. विक ही प्रदिप्त हुइ. अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप रूप चतुष्टय भुक्ता हुये. तृतीय पत्र-"अवस्थित" . ३अवस्थित स्थिरी भूत रहैं, अनंत चतुष्टय की प्राप्ती से सर्वज्ञ, सर्व, दर्शी, निरमोही बने, अनंत शकी प्रगटी जिससे सर्व इच्छा निर मुक्त, “मेरू इव धीरा" अर्थात् ज्यों प्रचन्ड वायू से भी मेरू पर्वत च. लायमान नहीं होता हैं, तैसेही महान प्राणांतिक क. ष्ट प्राप्त हुये भी प्रणामों की धरा कदापि चलबिचल नहीं होती हैं. सदा अचल रहहै. श्री उत्तराध्येयनजी सूत्र के दूसरे अध्याय में कहा हैगाथा-समणं संजयं दंतं, हणीज्ज कोइ कत्थइ. .. नत्थीजीवरस नासति, एवं पेहाज संज्जय. उतराध्येयन,

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