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ध्यानकल्पतरू.
त्मा का निज गुण ज्ञान और दर्शन है. वो अनादी अनंत है. यह ज्ञान और दर्शन कहने रूप दो है. परन्तु सङ्गत्व से एकही है. क्यों कि इकेला ज्ञान कोइ स्थान विशेष काल ठहर शक्ता नहीं है, ज्ञानके साथ ही दर्शन उत्पन्न होता है. ज्ञानका अर्थ जानना, और दर्शनका अर्थ श्रधना, ऐसा होता है, येही जीवके लक्षण हैं. इन सिवाय और जो कूछ है. सुक्ष्म (अद्रष्ट) पदार्थ, व बादर ( द्रश्य) पदार्थ यह सव चैतन्य द्रव्य से स्वभावमें और गुणमें अलग है क्यों कि “सव संजोग लक्खणं" अर्थात यह पुहल है, इससे इनमें संजोगिक विजोगिक स्वभाव सहजही है, यह इधर उधर से आके मिलभी जाते हैं, और बिछडभी जाते हैं. इनका क्या भरोसा ? ऐसा जान शुक्ल ध्यानी स्वभावसे निवृती भावको प्राप्त होते है, अन्य प्रवृतीको आत्म स्वभावमे प्रवेश करनेका अवकाश ही नहीं मि
* पुल ६ प्रकारके होते है, 'बादर बादर जो टुकडे हुये पीछे आपस में नहीं मिल जैसे पत्थर काष्ट वगैरे २वादर = जो टुकडें (अ लग२) हुये पीछे मिलजाय जैसे घृत तेलदूध वगैरे बादर सुक्ष्म= दिखे परन्तु ग्रहण नही किये जाय, जैसे धूप छाया चांदनी वगैरे ४ सुक्ष्म बादर = सरीर को लगे परन्तु दिखे नहीं जैसे हवा सुगन्ध वगैरे १ सुक्ष्म = प्रमाणु ओं जो एकके दो नहीं होये ६ सुक्ष्म सुक्ष्म = कर्म वर्गणा के पुद्गल - गोमट सार