Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

Previous | Next

Page 369
________________ चतुर्थशाखा-शुक्लध्यान. ३४३ और अनुमोदना कर ज्यों चीगटा घडा उडती हुइ रज. को अकर्षण करता है, और मलीन होता है. तैसेही वो उन पुगलोंको अकर्षण कर मलीन होते है; जिससे निज स्वभावका अच्छादन हो, पर स्वभावमें रमण कर, विभाको प्राप्त होते है. और ज्ञानी कांचके घडेकी तरह निर्लेप या लक्खे (चिकास रहित ) होने से वो ज. गत में भ्रमते हुये पुल उनके आत्माषे ठेहर नहीं सते हैं. क्यों कि वो मनादी त्रियोगकी अशुभ प्रवृत्तीसें स्वभावेही अलग रहे. निजात्मिक ज्ञानादी गुणमें रमण करते है, मतलब की इस जगत् मे अनेक जीव बोलते हैं, और अनक जीव सुणते हैं. उसने अपन ध्यान नहीं देते हैं, तो वो पुद्गल अपनको राग द्वेषके उत्पन्न कर्ता नहीं होतें है, और उन्ही शब्द को आपन अपनी तर्फ चे की यह गाली मुजेही दी की, तुर्त वो पुद्गल अपनी आत्मा में प्रणम, अपन को द्वेषी बना देते हैं. अब अपन जरा दीर्घ विचार से देखें तो, अपनी निंदा कोइ करताही नहीं हैं; क्योंकि, निंदा होय ऐसा अपना निजात्मा का स्वभाव ही नहीं हैं; आत्मा तो ज्ञानादी अनंत गुणो का सागर है, और ज्ञानादी गुणों की कोइ निंदा करताही नहीं हैं, निंदा तो विषय, कषायादी प्रकृत्ती यों की होती है, सो J

Loading...

Page Navigation
1 ... 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388