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३२६ ध्यानकल्पतरू. यिकादिक २५ क्रियासे उनकी निवृती हुइ है. मनदी योगले सर्व वृती बनने से बाह्याभ्यांतर क्रिया आनी सर्वथा बन्द होनेसे निष्क्रिय बने हैं. ६ द्रढ संहन. ७-शुद्ध चरित्र, जिनोक्त क्रिया करने वाले.. विशुध अपवशायी, ८ शौच विकलता रहित. ९निष्कंप--अडोल वृती. इन गुणो युक्त होवे, वे शुक्ल ध्यान कर सक ते हैं. ऐसे गुणवाले शुक्ल ध्यान ध्याते है. जिसका वरणन आगे चार विभाग करके कहते हैं. . . प्रथम प्रति शाखा-"शुक्लध्यानस्य पाय सूत्र-पुहत वीयक्केस बीयारी, एगत्त वीयके अवीयारी,
सुहुम किरिय अप्पडिवाइ,समुच्छिन किरिए अणियट्टि
अर्थ-१पृथक्त्व-वितर्क, २एकत्व-वितर्क, ३सुक्ष्म किया, अप्रतिपाति, और ४व्युछन्न क्रिया निवृत्ती. यह शुक्लध्यानके ४ पाये. जैसे मकानकी मजबुतीके लिये पाये (नीम) की मजबूती-पक्काइ करते है. तैसेही शुक्ल ध्यानी ध्यानकी स्थिरता रूप चार प्रकारके विचार करते है.
१२ और लालच करे सो लोभवति (इन १२ क्रियासे निवृते तब) १३ मी इरिवही सुक्ष्म क्रिया केवल ज्ञानीकी. सुयगडांग द्वितिय.