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उपशाखा-शुद्धध्यान. ३०७ विमल, अकलंक, अवंक, त्रिलोकतात, त्रिलोकमात त्रिलोकभ्रात, त्रिलोकइश्वर, त्रिलोकपूज्य, परम प्रतापी, परमात्म, शुद्धात्म, अनन्द कन्द, ध्वन्द निकन्द, लोकालोक, प्रकासिक, मिथ्या तिम्र विनाशिक, सत्य स्वरूपी, सकल सुखदायी, साद्वाद शैली युक्त, महा देश ना फरमाते है की, अहो भव्य ! बजो २ (चेतो २) मोह निद्रा नजो, जागो, जरा ज्ञान द्रष्टी, कर देखो, यह महान् पुन्योदयसे, अत्युत्तम मनुष्य जन्मादी स मग्री, तुमारे को प्राप्त हुई है, उसका लाभ व्यर्थ मत गमावो. ज्ञानादी त्री रत्नोसे भरा हवा अक्षय खजाना तुमारे पास है, उसे संभालो, उसीके रक्षक बनो, इसे लूटने वाले, मोह, मद, विषय, कषाय, रूप ठगारे तुमारे. पीछे लगे है, उनके फंदसे बचो, इनके प्रसंगसे अनंत भव भ्रमणकी श्रेणियों में, जो जो विप्त सही है. उसे यादकर पुनः उस दुःख सागरमें पडनेसे डरो. और बचनेका उपाय करनेकी येही बक्त हैं. जो यह हाथसे छट गइ तो पीछी हाथ लगनी महा मुशकिल है. जो इस वक्त को व्यर्थ गमा देवोगे तो फिर बहुतही पश्चाताप करोगे. यह सच्च समजो. और प्राप्त हुये दुर्लभ्य लाभ को मत गमावो. बनी वक्तमें लाभ लेना होय सो लेलो. मानो! मानो!! और विकाल मायाजाल