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ध्यानकल्पतरू.
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क्यों कि वहां तक कल्पना विचारना दोडही नहीं श क्की है. बडे २ ब्रम्हवेता सुर गुरू वृस्पति सर्वं शास्त्रों के पार गामीयों की भी बुझी हाल तक वहां न पहोंची, तो अब क्यो पहोंचेंगी, जो विशेष ही दोड करी तो इतना कह शक्तेहैं, की वहां एकला जीव कर्म कलंक व सर्व संग रहित, तत् सत् चिदात्म, अप ने ही प्रदेश युक्त विराज मान हैं वोसंपूर्ण ज्ञान मये ही हैं.
और भी वो जीव कैसे हैं सो सूत्र से कहत है सूत्र - ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरसे, ण परिमण्डले, ण किण्हे, न णीले, ण लोहीए, ण हळिदे. ण सुकिल्ले, ण सुरहिगंधे, ण दुरहि गंधे, ण तित्ते, ण कडु ए, ण कसाते, ण अंबिले, ण महुरे, ण कक्खडे, ण मउए, ण गुरुए, ण लहुए, ण सिए, ण उण्हे, ण णिद्वे, ण लुक्खे, ण काउ, ण रुहे, ण संगे, ण इत्थि, ण पुरिसे, ण अन्नहा, परिण्णे सण्णे उवमा ण विज्जति, अरूवी सत्ता अ. प्पयरस पयंणत्थि
आचारांग सूत्र.
अर्थात्-सिद्ध अवस्थाके विषय रहे हुये जीव नहीं लम्बे, नहीं ठिगणे है, नहीं लड्डू जैसे गोल हैं. नहीं तीखुण, नहीं चौखुण, नहीं चूडी जैसे मंडलाकार, नहीं काले, नहीं हरे, नहीं लाल, नहीं पीले,