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ध्यानकल्पतरू. दिहवाह न्संवा, जं चरिम भवे हबेज्ज सयणं, तत्तो ती भाग हीणं,सिद्धाणो गाहण भणिया.४
___ उववाइसूत्र अर्थात्-मनुष्य जन्मके चर्म (छेले ) समयमे जिस आकारसे यहां सरीर रहता हैं; उनके आयुष्य पूर्ण हुये बाद जिवके निजात्म प्रदेश जिस आकारसे उस सरीर के लम्बाइ पणे तृतीयांस हीन ( तीसरा भाग कम, सिद्ध क्षेत्र लोकके अग्रभागमें वो प्रदेश जाके जमते है. उसेही सिद्ध भगतंकी अवगहना कही जाती हैं. __ * नाशीकादी स्थानमें जो छिद्र (खाली जगा है वो भरा-- नेसे घनाकार (निवड) प्रदेश रह जाते है. इसी सबसे तृतियांस अवघेणा कम हो जाती है सिद्धकी अबवेणा जघन्य १ हाथ ४ अंगुल मध्यम ४ हाथ १६ अंगुल, उत्कृष्ट ३३३ धनुश्य ३२
अंगुल.
प्रश्न-अरुपी और अवघेणा कैसे?
समाधान-(१) अरुपीको अरुपीही द्रष्टांतसे सिद्धी करें तो जैसे अकाश अरुपी है तो भी कहा है. लोकालोक ( लोकका आकाश) सादीसांत ( आदी और अंत सहित ) तथा घटाकाश मठाकाश, वगैरे तो आकाश कूछ पदार्थ हें. तभी आदी अंत होता है, तैसेही सिद्ध की अवघेणा जाणना. फरक इत्नाही की आकाश तो अरुपी अचैतन्य हे, और सिद्ध अरुपी चैतन्य हैं. (२) किसी विद्वानसे पूछा जाय की, आप जित्नी विद्या पढे हो वो हमे हस्तावल (हाथमें आवले के फल की ) माफिक बतावो; परंतु