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३०२ ध्यानकल्पतरू. एकही वक्त कहें नहीं जाय, अस्तिक है तो नास्तिका आभाव आवें, मृशा लगे, इसलिये स्याद आस्ति अव क्तव्य होय ६ और इसही तराह जो नास्ति कहै तो आस्तिक अभाव आवे इसलिये स्यात् नास्ति अवक्त होय. ७ आस्ति के कहने से नास्ति का अभाव, नास्तिके कहने से आस्तिका अभाव, और पदार्थ एकही काल.मैं आस्ति नास्ति दोनो तरह हैं परन्तु कहैजाय नहीं क्यों की वाक्या तो कर्म वृती है इसलिये स्यत् आस्ति नास्ति अवक्तव्य होय यह आस्ति नास्ति अश्रिय स्यात् पाद मत से आत्माखरूप दर्शाया. .. एसेही नित्य, अनित्य; सत्य, असत्य; वगैरे अनेक रीतीसे आत्म स्वरूपके विचारमें जो निमग्न हो प्रगल पिण्ड से आत्माकी भिन्नता लेखे, निश्चय आत्मिक बने. . - यह सब पिण्डस्थ ध्यानमें चिंतवन करनेका
.मनहर-पाणी हारी कुंभरु, नटवर-वृतमें, कामीको-कन्ता,
सती-पती चहाइ; गौ-वच्छ, बालक-मात, लोभी-धन, चकवी-सूर्य, पपैया-मेहाइ; कोकिल-अम्ब, नेसायर-चन्द्र ज्यों, हंसो-दधी, मधू-मालती, ताइ, भयवंत-सरण,. आयकी-औषधी, 'अमोल' निजात्म त्यों नित्य ध्याइ.१