Book Title: Dhyan Kalptaru
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Kundanmal Ghummarmal Seth

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Page 329
________________ उपशाखा-शुद्धध्यान. ३०३ मुख्य हेतु, सर्व वस्तुओंमे मन रमण करता है उससे निवार, एक आत्माके तर्फ लगानेके लियेही है. आत्माके तर्फ मन लगनेसे अन्य पुद्गलोंको ग्रहण नहीं करता हैं, जिससे नवीन कर्मका बन्ध नहीं होता है. ज्यूंने कर्म क्षिण २ में अलग हो आत्म ज्योती पूर्ण प्रकाश पाती है. तब सर्व कार्य सिद्ध होते हैं. ऐसे पिण्डस्थ ध्यानका संक्षेपमें विचार इला! ही है की, ज्ञानादी अनंत पर्याय का पिण्ड एकमै आत्मा हूं. और वर्णांदी अनंत पर्यायका पिण्ड, कर्म तथा उससे उत्पन्न हुवा सरीर है. इस लिये दोनो के स्वभाव भिन्न भिन्न होनेसे दोनो अलग २ हैं. ऐ. सा निश्चय होयसो पिण्डस्थ ध्यान. इस ध्यानसे भेद विज्ञान प्राप्त होता है. जिससे आत्म स्वभावमें, अत्यंत स्थिरता भाव युक्त, क्षांत, दांत, आदी गुण स्वभाविक जाग्रत होनेसे, सर्व भयसे निवृत्ती होती है. उन्हे महा भयंकर स्थानमें, क्षुद्र प्राणीयोंके समो. ह में या प्राणांतिक उपसर्गके प्रसंगमेभी किंचितही क्षोभ प्राप्र नहीं होता है, अखंडित ध्यानकी एकाग्रता से वो स्वल्प कालमें इष्टार्थ साधते हैं.

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