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उपशाखा-शुद्धध्यान. रुपी निर्जीव जड पदार्थहैं, और जीव ज्ञान स्वरुप अ. रुपी चेतना वंत हैं. इन दोनोका अनादी सम्बन्ध के सबबसही देहाध्यासके प्रभावसेही भवांतरों में अनेक तरहका कायारूप धारण करता है. ऐसे जानने वाले जक्तमें थोडें है. जो यह जानेंगे. वोही कर्म सम्बध तोड, निर्वाण प्राप्त करनेका उपाय करेंगे. गाथा जीवो उव ओगम ओ, अमुत्ति कत्ता सदेह
परिमाणो. भोत्ता संसारत्थो सिद्धो, सो विरस सेड्डगइ.
द्रव्य संग्रह. 'जीवा'=यह जीव शुद्ध निश्चयसे आदी मध्य और अंत रहित स्व तथा परका प्रकाशक, उपाधी रहित शुद्ध ज्ञान रूप निश्चय प्राणसें जीता है. तो भी अशुद्ध निश्चय नयसे, अनादी कर्म बन्धके वशसे, अशुद्ध जो द्रव्य प्राण, और भाव प्राण उनसे जीता है.
१ त्रीकालमें जीवके चार प्राण होते है, { इंन्द्रियोंके अगो चर शुद्ध चैतन्य प्राण, उसके प्रति पक्षी क्षयोपशमी इन्द्रि प्राण. २ अनंत विर्य रूप बलमाण, उसका अनंत वा हिस्सा. मन 'बल' वचन बल, कायावल, माग है. ३ अनंत शुद्ध चैतन्य प्राण उससे विप्रीत आदी अंत सहित आयुप्राण है. और ४ श्वासोश्वासादि खेद रहित शुद्ध चित प्राण उससे उलठ श्वासोश्वास प्राण हैं यह ४ द्रव्य प्राण और ४ भाव प्राणसे जो जीया है. और जीवेगा वो व्यवहार नयसे जीव हैं.