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उपशाखा-शुद्धध्यान. २९३. देहाध्याससे व कर्म संयोग कर हो रहा है, जिससे संसार चक्रबालमें, अनंत परिभ्रमण कर रहा है. इस का मुख्य हेतू यह है की
जो जो पुद्गल की दिशा, ते निजमाने हस. याही भरम विभाव ते, बडे कर्मको वंस,
जो जो जगत्में पुद्गली पदार्थ हैं, उनको अपने मान रहा है, और उनका स्वभाविक स्वभावमें पलटा पडनेसे. अर्थात् पुद्गलोंका संयोग वियोग होनेसे आपनाही संयोग वियोग समजता हैं, मतलबकी अपनी अंनत ज्ञानमय जो चैतन्य अवस्था हैं, उसको कर्मों के नशेमे छक हो भूलगया भ्रममें पड़गया; और अपना स्वभाव को छोड विभाव में राच- माच रह्या हैं, जिससे कर्मों की वृधी होती हैं और भव भृमण करणा पडता हैं. कहा है
कर्म संग जीव मुढ हैं. पावे नाना रुप, कर्म रुप मलके टले. चैतन्य सिद्ध स्वरूप.
यह सब कर्म की संगती काही स्वभाव हैं, न की चैतन्यका क्योंकि चैतन्य तो सिद्ध स्वरूपी परमा त्मा रूप हैं. इसका भव भ्रमणमें पडनेका स्वभाव हैं ही नही. जो होय तो सिद्ध भगवंत को भी पुनर जन्म लेनापडे. परन्तु कर्मों संयागसे मूढ हो एकेंद्रीया