________________
२३८ ध्यानकल्पतरू. ना चहाते हैं, तैसा निष्फल काम हैं."
इस काल की रचनाका तो जरा विचार करो, यह काल हरेक वस्तुका एक वक्त अहार कर, पीछा तुर्त निहार कर देता है, और तुर्त पीछा उसके भक्षणका लोलपी हो, उसके पीछे पडता हैं. सो दूसरी वक्त उसका पूरा भक्षण नहीं करें, वहां तक उसका क्षिण २ में क्षय करताही रहता है, और अचिंत्य खा जाता है, और पीछे वोके वोही हाल, ऐसे अहार निहार करते २ अनंतानंत समयवीत गया, तो भी यह त्रप्त न हुवा और न होगा.
अपने स्वजनका मत्यू देख, मूर्ख फिकर कर. ता हैं. परन्तु यों नहीं समजता है की. मेभी काल की दाढ में बेठा हूं. अराक मस्का लगने की देर हैं. की इस जैले हाल मेरे भी होंगे!! ... .. काल के विचार मात्र सेंही, बडे इन्द्र नरेन्द्र निजस्थान चुत हो नीचे पड़ते हैं. तो बेचारे मनुष्य जैसे कीडे की क्या कथा. * गाया-जस्तत्थी मच्चूणं सखं, जस्सन्थो पल्लाइणं, जा जाणे न मरीसामी, सोहं कर सुहेसय.
उतराध्येयन, अर्थ-जिसकी कालसे प्रीती होय, भग जाणकी शक्ती होय, अथवा भरोसा होय के भै नहीं मरूंगा, बोही सुखसे सूता रहे.
-
-