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२४८ ध्यानकल्पतरू. का हिस्सा लेने वाला कोई नहीं है.
इस जक्तमें परिभ्रमण करते हुते अनंत जीवों. मेंसे रस्ते चलते २ थोडे दिनोके लिये कोई स्त्री बन जाता है- कोई पुत्र हो जाता है, ऐसे २ अनेक सम्बन्ध करते हुये. पुद्गल परावृतनके फेरेमें किदर के किदर ही चले जाते है. फिर उनका पताभी लगना मुशकि. ल होता है. ऐसेही हे जीव ! तूं भी केइका पिता, केइ का पुत्र, केइकी स्त्री, इत्यादी बन आया, और छोड आया वो तुजे पहचाने नहीं, तू उन्हें पहचाने नहीं, ऐसे २ विचार भी तेरे समक्ष रजु होते. तेरा एकत्व. पणा तुजे भाष (मालम) नहीं होता हैं. यह अश्चर्य है.
हे आत्मन् ! सर्व जगत के पदार्थ तेरेसें भिन्न (अलग) हैं. और तूं उनसे भिन्न है. तेरे उनके कुछभी सम्बन्ध नहीं है, इस लिये अब तूं तेरे निज स्वरूप कों पहचान की तूं शुद्ध है. सत्या है, चिदानंद है, सिद्ध समान है. हमेशा इसही ध्यान में लीन हो की, इस रूप बने.
चतुर्थ पत्र-“संसारानुप्रेक्षा” के खरूपको विचारे, सो संसारानुप्रेक्षा,