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२७४ ज्यानकल्पतरू. करें की यह सरीर पुद्गलो के संयोग से निपजा हैं. श्री उत्तराध्ययनजी में फरमाया है की गाथा नो इंदिये गिझं अमुत्त भावा, अमुत्त भा
" वा विय होइ निच्चो अझत्थ हेउ निययं सं
बंधो, संसार हे उंच वयंति बंधं १९ - अर्थ-जो मूर्ती पदार्थ हैं वोही इन्द्रियों संग्रहण किये जाते हैं. और जो पदार्थ इन्द्रियोंसे ग्रहण किया जाते हैं वो जड़ होते हैं और चैतन्य तो अमूर्ती (अरूपी) हैं. उसको इन्द्रियों ग्रहण नहीं कर सक्तीहैं इसलिये वो अजड अविन्यासी नित्यहैं, अनादी देहा ध्यासके कारण से जड और चैत्यन्य सम्बंध से एकत्र रुपहो रहाहै, जैसे दूध और घृत. यह जो जडका औं र चैतन्य का सबन्ध है, सोही संसार का हेतूहैं. इस अनादी सबन्ध का निकंद करने, श्री आचारांग सूत्र मे फरमाया, "जेएग णामे, से बहुणामें; जेबहुणामेंसे एगणामे,” अर्थात्जो एक मोह (ममत्व)को नमावे सो बहूतो को नमावे, अर्थात सर्व कर्मोकों नमावे, और जो बहुत (सर्व)को नमावेगा सोही एक (ममत्व)को नमा वेगा और जेएगं विगिंचमाणे पुढोगिचइ पूढो विगिचमा णे एग विगिंचइ'अर्थात् जो एग मोहकों खपाते हैं वोसब (कर्मों)को खपातें है; और जोसर्वको खपते है. वोही