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ध्यानकल्पतरू.
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का स्वभाव है; चैतन्यका नहीं. चैतन्य तो निर्वेदी, निर्बिकारी है. तो फिर बीकारीक वस्तुओंकों देख. बिकारी क्यों होता है
२ जो शत्रुता, मित्रता, के प्रणाम होतें है, सोही कर्म स्वभाव है. निश्चयमें तो "अप्पा मितंममितं 'च " जो अकृतसे निवृते तो अपनी आत्मज मित्र है, नहीं तो शत्रुताका साधन तो होताही है. इस विचारसे शत्रु मित्र पर व अच्छी बुरी वस्तुपर सम प्रणामी बने. राग द्वेष न करे.
३ इत्ने दिन में तो बालककी तरह अनेक चे. ष्टा करता सो अन्यका प्रेरा हुवा करताथा, न की चै तन्का क्यों कि चैतन्य तो अनंत ज्ञानादी शक्तीका धारक है. वो किसी प्रकार चेष्टा ( ख्याल समाशा ) करेइ नहीं.
४ इतने दिन अन्य पदार्थ सच्चे मालम पडतेथे, अब वोही स्वप्न और इन्द्र जाल जैसे मालम पडने लगे. फिर इसकी प्रतीत कां रही. और असत्य को सत्य माने सोही मिथ्यात्व.
५ जो परमात्माको अविन्यासी कहते है. वो मैही हूं. फिर जंगम और स्थावर से मेरा विनाश हो वे यह वैमही खोटा है. "मरे सो और, और में और'