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उपशाखा-शुद्धध्यान.
३७९ गालने लगते है.
__१८ आत्म ज्ञान विन कोरे तप करनेसे, दुःख मुक्त नहीं होता है.
१९ वाहिर आत्मा वाला, रुप धन, बल सुख, इत्यादी का अहों निश ध्यान करता है. और अंतर आत्मिक इस से विरक्त हैं.
_____ २० अज्ञानी फक्त बाह्य त्यागसे सिद्धी मानते हैं, और ज्ञानी बाह्य अभ्यंतर दोनो उपाधीयों त्याग नेसे सिद्धी मानते हैं,
२१ अध्यात्म ज्ञानी व्यवहार साधने बचन और कायासे अन्यन्य कार्य करते भी मनसे एकांत अंतर आत्मामें ही लीन रहते हैं.
२२ आत्म साधन करती वक्त, जो उपसर्ग, व. दुःख होता है. उसे अध्यात्मी दुःख नहीं समजते हैं बल्के सुखही समजते है, जैसे रोगी कटू औषधीके स्वादको न देखता गुणहीका गवेक्षी होता है.
*श्लोक-नैव छिदति शास्त्राणि, नैनं दहतिपावकः . नचैनलदयं तपो, नशोषयति मारुतः ॥१॥
अर्थ- इस आत्माको तिक्षण शस्त्र छेद शक्ता नहीं है, प्रचन्ड अग्नी जलासक्तानही है, पागलासक्ता नही है औरवायू (पवन) सुकासक्ता नेहा है। तो फिर भय (डर) किसका