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तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २४७ हीं, संयोगी नहीं, वियोगी नहीं, इन सब भावौ से अलग ही हैं, फक्त प्रेक्षक को देखाने हँसाने. फसाने. रुलाने, अनेक भाव दर्शाता हैं. और अंतर में वो सब से अलग हैं, तैसेही संसार रुप नाटक शाळामें चैतन्य नट कर्म संयोग अनेक उंच नीच. एकेंद्री से पचेंद्री तक चंडाल से चकृ. वृती तक, रुप धारण कर. उस रुप प्रमाणे अनेक योग्या कर्म किये. औ र अखीर एकही कायम नहीं राह ! सब निज २ स्थान रहगये. और चैतन्य अलग ही राह. यह देखीयें कर्मो का तमाशा. अब जरा कर्म रुप नशाका उतार आया दिखता है, जिस सें थोडा भान आया, और ऐसा विचार होने से कर्मों की विचित्रता समज भेद विज्ञानी बना हैं, तो अब विभाव को त्याग स्वभाव में रमण करः
देख ! जब तूं आया (माताकी योनीसे बाहिर पडा) था तव इकेलाही था. और तेरे देखते २ अनेक गये, वो इकेलाही गये. वैसे तूं भी इकेलाही जायगा अशुभ कर्म के फल भोगवने नर्कमें, और शुभ कर्मकें फल भोगवने स्वर्गमें,गया, तो इकेलाही गया! धन, वस्त्र, मकान, भोजन, भुषण, वगैरे का हिस्सा (पांती) लेने वाले अनेक स्वजन हैं. परन्तु कृत कर्म के फलों
फल भोगवने का भुषण, वगैरे काम के फलों