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तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २४५ मिले, इनके प्रसंग कर मैने ४ गत २४ दंडक ८४लक्ष जीवा योनीमें, उच्च नीच जाती स्थानमें, अनंत विटंबना भुक्ती है. अब इनका संङ्ग छोड मुजे एकत्वता धारण करनी योग्य हैं. ऐसे विचार से सर्व सम्बन्ध परित्याग कर, वितराग दिशाको अवलम्बे.
जैसे बदलो के फटने सें, सूर्य स्व प्रकाश को प्राप्त होता है, तैसेही कर्म पड्डल दूर होने से आत्मके निजगुण झानादी प्रकासित होते हैं, और चैतन्य अपना स्वरुप पहचानता हैं.
एक स्वानु प्रेक्षक, विचार करे की, में कौन हूं. एक हूं या अनेक हूं, दीखने रुपतो एकही सरीर का धारक हूं. परन्तु जो एक मानू तो. मातंपिता कहै मेरा पुत्र, क्या में पुत्र हु ? बेहन कहे मेरा भाइ. तो क्या में भाइ हूं? स्त्री कहै भरतार. तो क्या में भरतार हूं ? पुत्र पुत्री कहे पिता तो क्या में पिता हूं, यों कोइ काका, कोइ बाबा, कोइ मामा माशा, व्याइ, जमाइ ऐसे २ सब मेरा २ कर मुजे बोलाते हैं, अब विचार होता हैं कि में कौन हू, और किसका हू, हा, ! अश्चर्य; मेरा पत्ता लगना हीं, मुजे मुशकिल हुवा. में एक हो कित्ने नाम धारी. किरने का हुवा, परंतु जो निश्चयात्मक हो विचारता हूं तो, यह सब कर्मोके चाले हैं;