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तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १९१ त हर्षाय, और वियोग होने से पीछी वैसीही उत्कं. ठा जगे उसी का नाम रुची है. संसारी जीवोंकी जै. सी रुचि व्यवहारिक पुद्गलिक कामोंकी होती हैं, धर्म ध्यानी की वैसी रुची आत्म साधन के कामों में होती है. यह आस्म साधन के परमार्थिक कामो के मु. ख्या चार भेद किये है.
प्रथम पत्र-अज्ञा रुची
१ आज्ञा रुची; अनादी काल से यह जीव जिनाज्ञा का उलंघन कर, स्वच्छंदा चारी हो रहे है. जिससेही इत्ने दिन संसार में परिभ्रमण किया. उत्तराध्येयन सूत्रमे फरमाया हैं की "छंदो निरोहण उववेइ मोरकं” अर्थात अपना छांदा (इच्छा) का निरंधन करे जिनाज्ञा में प्रवृतनसे ही मोक्ष मिलती है. इसलिये मुमुक्षु जन को चाहीये की अपनी इच्छा को रोक. वितराग की आज्ञा में प्रवृतने का पर्यत्न करे, अब वितराग की आज्ञा क्या है. उसे विचारिये. वितराग-राग द्वेषके क्षय करने वाले को कहते हैं, जिनोने राग द्वेशके क्षयमें ही फायदा देखा, वो राग द्वेष घठानेकी ही आज्ञा करेंगे