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तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २१५ लों ने अपने साथ अनंत वक्त दगा किया कभी शुभ संयोग मिल हंसा दिया. तो कभी अशुभ संयोग मिला रोवा दिया. कभी नवग्रयवेक तक उंचा चडाया और कभी सातमी नर्क के तले नीगोद में दबाया. कभी सब के मनको रमणीक बनाया, और कभी भिष्टा रुप बना, अपने उपर सब को थुकाय. ऐसी २ अनंत विटंबना इन पूगलो ने अपनी अनंत वक्त करी हैं ?
और भी जहां तक इन की संग नहीं छूटेगा वहां त क पुद्गलों का जो स्वभाव है की पु=पूरे (मिले) औ. र गलगले (बिछडे). वो कादापि नहीं छोडने के फिर कौन मुर्ख बने की उनकी संगत में लुब्ध हो, अपनी फजीती करावें. ऐसा जान, जो अपनी आत्मा कों सुख चाहवो तो. पुद्गलों का ममत्व त्यागो. और ज्ञान दर्शन चारित्र यह रत्न त्रय हैं. इन्के स्वभावमें कभी बी फरक (फेर) नहीं पड़ता है, ऐसे स्थिर स्वभावी निजात्म गुण हैं. उनको पहचान, अखंड प्रिती करे! की वो अपने रूप चैतन्य को बना, अनंत अक्षय अव्या बाध सुखका भुक्ता बनावे, इस बौद्धसे मोक्ष के तर्फ श्रोताओंका मन खेंचे. .
४ निव्वेगणी-अर्थात निवृतनी संवेंगणी में सं. सारका यथार्थ स्वरूप दर्शाया. और निव्वेगणी में,