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ध्या कल्पतरू. फल दर्शना मुशकिल हैं, परंतु इत्ना तो निश्चय समजी ये की, “करणी तणा फल जाणजो, कदीय न निर्फल होय" जो जन्मतेही सुखी द्रष्टी आते हैं. वो पापारजित पुण्यकाही फल हैं. ऐसेही ह्यांकी करणीभी आ गे फल देगी. निर्वेगनी कथाका मुख्य हेतु यह है की “कड्डाण कम्मा न मोरक अस्थी.” अर्थात् कृत कर्मकें फल अवश्य मेव भोगवनेही पडते है; फिर इस जन्म में देवो, या आगे के जन्ममें ऐसा समज कर्म बन्धसे बचने प्रयत्न हमेशा करते रहीये.
बांचना, पूछना, और परियट्टणा कर, जो ज्ञान पक्का किया हैं, उसे इन चारही प्रकारकी धर्म कथा कर उसका लाभ दूसरे को देना चाहीये.
यह धर्म ध्यानके चार आलम्बन आधार कहे। है, इन चारही काममें धर्म ध्यानी मनको रमण कर इन्द्रीयोको विकार मार्गले निवार. आत्म साधन अ- . च्छी तरह कर, इष्टितार्थ सिद्ध कर सक्ते है. चतुर्थ प्रतिशाखा-धर्मध्यानस्य अनुप्रेक्षा' सूत्र धम्मस्सणं झाणरम चत्तारीअणुप्पेहा पन्नंतातंज्ाहा अणिञ्चाणुप्पेहा, असरणाणुष्पेहा, एगत्ताणुप्पेहा,
संसाराणुप्पहा.