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तृतीयशाखा-धर्मध्यान. २२३ की रही हुइ घटिका पुर्ण होने से क्षिण मात्र में सरीर संपती का क्षय हो जायगा! फिर तुम कोट्यान उपाय कर, गइ घटि को बुलावोगे तो वो नहीं आने
की और पस्तावोंगे तो भी कुछ नहीं होने का. ऐसा जाण है हितार्थी ! जो बाकी आयुष्य रहा हैं. उसे व्यर्थ मत गमावों. यह चिंता मणी रत्न तुल्य घटि का, कू.कर्म में व्यय (खर्च) मत करों, इस क्षिणक संसार की क्षिणिक स्थिती को प्राप्त हो रही क्षिण में सुधारा करने का हो सो कर घडी को लेखे लगावों.;
और जो तुम.शरीरको नित्य मानते होवोतो यहभी नित्य नहीं है, क्षिण २ में इसके स्वभावमें, रूपादी गुणोंमें फरक पड़ता हुवा. परोक्ष और प्रत्यक्ष भाष होता है, देखीये, अव्वल जब जीव मनुष्य. पर्या य रूप गर्भमें आ उत्पन्न होता है. तब माताका रुद्र,
और पिता का. शुक्रका, अहार कर..मांड (चांववलोके. धोवण) जैसा सरीरकों प्राप्त होता है. फिर काल
* गाथा-जाजा बच्चइ रयणी, नसा पडि नियत्तइ,
- अहम्म कुण माणस्स, अफला जति राइ उ.. . अर्थ-जो जो दिन रात्री जाते है, वो पीछे नहीं आते हैं, अधीके निष्फल जाते है. और इसके आगेकी गाथा कहा है, धर्मीके दिन रात सफल जाते है.. . . .