________________
२१४ ध्यानकल्पतरू. मुक्तते है.+ पापका हिस्सा कोई भी ले नहीं शक्का ह्यांही देखीये, चोर को ही शिक्षा होती हैं- उसके कुटम्ब (माल खाने वाले) को नहीं. ऐसा जाण कर्म बन्ध से डरे, धर्म करे. सो सुखी होवें. इत्यादी समजने से उसका मोह कम हो. वो धर्म में संलग्न करे. [४] कुटंब से ममत्व कमी हुयें पीछे-सर्व पुद्गलों पर से ममत्व कमी कराने बोध करे. की-यह जीव अनाद काल से नशेमे बेशुद्ध हो, अपना निज स्वरुप को भुल, पर पुदलों के विषय त्री योग की रमणता कर रहे है, परन्तु यों नहीं बिचारते हैं की. 'पराये अपने कब होंगे.' इस संसार व्यवहार में अब्बी जो कोइ एक वक्त दगा देदेवें तो सुज्ञ मनुष्य दूसरी वक्त उ. सकी छांह में भी खडा नहीं रहता हैं. और इन पुद्ग
+ दो भाइयों के आपसमें बहुत प्रेम था- एकके नारु (वाले) का रोग हुवा. दुसरेने जमीकंद और ह.र काय के औफ्ध किये. वो मरके नर्क में नेरीया हुवा और दुमरे भाइने रोग कष्ट सहा, सो अ काम कष्ट से परमा धामी देव हुवा; और अपने भाइ के जीव को मारने लगा और कहा की तेने मेरे प्रेममें लूब्ध हो, बहुत जमी कंद का आरंभ किया उसके फळ भोगव. नेगया वोला भाइ मेने तेरे लियेही पाप किया और तुही मुजे मरता है यह कैसा अन्याय यम बोला-हम न्यायान्याय कुछ नहीं समज तें है तेरे किय कर्म के फल तुझेही भोगवणे पडेंगे “ करता सो. सुगंता."