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२.१.६
ध्यानकल्पतरू.
संसारसे निवृत्तनेका स्वरूद दर्शावें. संसारमें रोकने वाले कर्म है. की इस भव के किये, इसही भवमें भोगवे, जैसे हिंशा से सूली (फासी) झूटसे अप्रतीत, काराग्रह, चोरीसे कैद, खोडा बेडी, बिभचारसे फजी ती व गर्मियादी रोगसे सडके मरना. ममत्वसें कूटम्बा दिकके निर्वाहाका महाकष्ट सहना, वगैरे २, और भी जगत्वासी जीव जित्ने कर्म करते है, वे सब सुखके लिये करतें है, परन्तु सुखी बहुतही थोडे दिखते हैं, इससे प्रतक्ष समज होती है की जिस उपाय से सुख होता है. वो नहीं जानते हैं, और दुःखका उपाय कर सुख चहाते हैं, सो कहांसें होय; अग्नीसे शीतलता कदापी न मिल सकेगी! तैसे जो धनसे सुख चहाते है. तो धन में सुख कहां है, विचारीये धन उत्पन्न करते ( कमाते) शीत, ताप, क्षूद्या, त्रषा, वगैरे, अनेक . कष्ट सह संग्रह करते हैं. और ज्यों ज्यों लक्ष्मीकी अ. ,धिकता होती है, त्यों त्यों तृष्णाभी अधिक बढती जाती हैं, और " तृष्णायां परमं दुःखं " अर्थात त्रष्णांही
* श्लोक - वितं मार्जितानां दुःखं मार्जितानां च रक्षणं, आय दुःखं व्यय दुःखं किमर्थ दुःख साधनं.
अर्थ - धन कमाते दुःख, कमाये पीछे रक्षण करनेका दुःख, और चला जाय तो भी दुःख फिर दुःखका साधन क्यों करते हो ?