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ध्यानकल्पतरू.
यह निसंदेह हैं. ऐसा जाण वितरागकी आज्ञाके इ. च्छक, सदा मध्यस्त प्रणामी रहै. प्रतिबंध रहित रहे. सो प्रतिवन्ध चार प्रकारके होते है. १ द्रव्यसें=१सजीव सो द्विपद. मनुष्य, पक्षिका. चतुष्यपद, पशुओंका. २ अजीव सो वस्त्र, पात्र, धनादिकका, ३ मिश्र सो दोनो भेले, जैसे, वस्त्रा भुषण, मंडित मनुष्य, पशु, इत्यादी. २ क्षेत्रसे ग्राम, नगर, घर, खेत, इत्यादी. ३ कालसे घडी, प्रहर, दिन, पक्ष, मांस, बर्षादि. ४ और भावसे क्रोधादी कषाय. मोह ममत्व, इन चारही प्रतिबन्ध रहित रहें. ७ क्षुद्या, लषा, शीत तापादी समभाव से सहन करें, मिष्ट कटु बचनकी दरकार न रख्खे. निद्रा प्रमाद अहार कमी करे, सदा ज्ञान ध्या न तप संयममें आत्मा को रमण करते प्रवृतें ( इस आज्ञा रुचीका विस्तार पहले आज्ञा विचयमें विस्तार से होगया है. वहां कहा सो तो विचार समजना और यां कही सो प्रवृतन करनेकी इच्छा समजना.)
* यह श्रावक हमारे, यह क्षेत्र हमारे, इस प्रतिबन्धनमें बंधने से ही इसवक्त पितरागके अनुयायों में धर्म ध्यानकी हानी होके क्ले. शको वृद्धी होता हुइ द्रष्टी आता हैं. आत्मार्थीयों को इस झगडेसे बच, अप्रतिबन्ध विहारी होना चाहीये की जिससे धर्म ध्यान भखंड रहे.