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तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १९५ गाथा सोच्चा जाणइ कल्लाणं. सोचा जाणइ. पावगं,
उभयपि जाणाइ सोच्चा. जैसयं तं समायरे. ११
अर्थ-सुनने सेही मालम होती है के. अमुक सुकृत्य करने से अपणी आत्मा का कल्याण (अच्छाभला)होगा और अमुक पाप कृत्य करनेसे बुरा होगा; तथा अमुक काम करने से, अच्छा और बुरा दोनो ऐसा मिश्र काम होगा जैसे की काम भोग में सुख तो थोडा है, और दुःख अनंत है, यह दोनो बात समजे. तथा मिश्र पक्ष जो ग्रस्थ धर्म हैं. जिसे शास्त्र में 'धम्मा धम्मी' तथा 'चरीत्ता चरित्ते' कहे हैं. क्योंकि संसार में बेठे हैं सो विना पाप गुजरान होना मुशकिल ऐसा समज, उदासीन वृति से पश्चाताप युक्त काम पूरता कर्म करते हैं. और आत्म कल्याण का कर्ता धर्म को जाण. जब २ मौका मिलता हैं- तब २ अत्यंत हर्ष युक्त धर्म क्रिया करते है. यह तीनही बातों सुनने से मालम पडती है. उसमें से अच्छी लगे उसे स्विकार के सुखी होतें है. ये सब उपदेश सेही. जाणा जाता है. उपदेश (वाख्यान) में सदा अभीनव तरह २ का सोध श्रवन करने से स्वभाविक तत्व रु ची तत्वज्ञता उत्पन्न होती है. ध्यानस्त हुये वो बोध नग में रमा करता है तब अन्य सर्व वती से चित