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__ तृतीयशाखा-धर्मध्यान. १९९ दार्थ, २ विघनेवा=विनाश होने वाले और ३ धुवेवा= ध्रव (स्थिर) रहने वाले पदार्थ, यह तीन पद पढाते जिसमें चउदह पुर्बका ज्ञान समज जातेथे. जैसे कुंडभर पाणीमें एक तेलकी बुंद डालनेसे सब हौदमें फैल जाती हैं; तैसेही उन्हे सिखाया हुवा, साक्षप्त शब्द विस्तार कर प्रगम जाताथा. और चउदे पुर्वका ज्ञान जिसके एक खुणेमें समाजाय,ऐसा द्रष्टी वाद अंगके पाठी (पढे हुये) भी विराजमान थे. इस ज्ञानके प्रमोत्कृष्ट रसमें जब उनकी अनात्मा लीन होजातीथी. तब छे छ महीने जित्ना समय ध्यान में वितिकृत होते भी उनको भूख, प्यास, शीत, उष्णादी पीडा (दुःख) ज नक न मालम होतीथी. ऐसे २ प्रबल बुद्धि बाले थे. तब लेखका कष्ट सहनेकी क्या जरूर पडे! चौथा आरा उतरे लगभग ९७६ वर्ष गये पीछे . 'श्री देवढी गणी क्षमा श्रमण' नामें आचार्य, किसी व्याधीकों निवारने सूठ लायेथे. और आहार किये बाद भोगवणेकों कानमें रखलीथी. सो वक्तसिर खाना भूल गये. और देवसी प्रतिक्रमण की आज्ञा लेती वक्त नमस्कार करते वो संठ कानमेंसे गिर पडी, उसे देख विचार हुवा की अब्बी एक पूर्व जित्ना ज्ञान होतेभी इत्नी बुद्धि मंद रह गई है. तो आगे क्या होगा. जो