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ध्यामकल्पतरू.
भोग वाय ऐसी करें. आयुष्य कर्म कदाचीत कोइ बंधे, कोइ नही बांधे. असाता वेदनी (रोग दुःख देने वाले) कर्म वारंवार नहीं बांधे; और चार गती रुप संसार कंतार (जंगल) का पन्थ-मार्ग आदी रहीत है. और मुशकिल से पार होय ऐसा हैं. उसे क्षिप्र (शिघ्र) अतिक्रमें (उल्लंघे)-अर्थात जल्दी पार पावें मोक्ष प्राप्त करें देखयें श्री महाबीर वृधमान श्वामीने खुद, शास्त्र द्वारा विचार ना (ध्यान) का कित्ने विस्तारसे गुणा नुबाद किया हैं. ऐसी उत्तम विचार शक्ती है, ऐसा जाण खब उपयोग युक्त ज्ञान को वारंवार फेरना चाहीये.
जो ज्ञान फेर कर पका किया उस का रस हूबेहु प्रगमा उसका लाभ दूसरे को देणें के लिये
चतुर्थ पत्र “धम्मकहा' __४ 'धम्मकहा' अर्थात् धर्मकथा (बाख्यान) करें. धर्म कथा श्री ठाणायंग सूत्र में ४ प्रकार की कहके; एकेक के चार २ भेद करनें सें १६ प्रकार होते हैं, सो
[२]अखेवणी-अर्थात् अक्षेपनी. जो बोधश्रोताकों सुणावे उसकी असर श्रोताके मनमें हुबेहू होवें, पीछा वमन न होवे. ऐसा पक्का ठसजाय. रुचजाय, फ्चजाय;
* आयुष्य कर्म का बन्ध एक भवमें दोवक्त नहीं पड़ता हैं.