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तृतीयशाखा-धर्मध्यान ९५ तंत्रादि कोइभी, सरण-आश्रय देनेवाले नहीं है. यथा द्रष्टांत-(१) जैसे हिरणके बच्चेको सिंहनें ग्रहण किया. उसे छोडाने सामर्थ दूसरा हिरण नहीं होता. (२) तथा समुद्र में झाजमेंसे पडे हुये मनुष्यको कोइ आश्रयभत नहीं होता हैं; तैसे. ऐसा जाननेवाले परद्रव्यसे ममत्व उतार, एके-निजस्वभाव-निजगुणकाही आलंबन करेगे; वोही निजात्म स्वरूप-सिद्ध अवस्था कों प्राप्त होंगे. . ३“संसार भावना"-इस संसारमें, जिले द्रव्य हैं, उन सबको. ज्ञानावरणियादी अष्ट कर्मके योगसे; तथा शरीर पोषणेके लिये. अहार पाणी यादीसे तथा श्रोतादी इन्द्रियोंसे, अपने जीवने अनंतवार ग्रहण कि ये और छोडे, इसे द्रव्य संसार कहना. तथा (२) असंख्य प्रदेशसें व्याप्त यह लोक हैं, उनमेसें एकेक प्रदेशपे. यह जीव अनंत वक्त जन्मा और मरा, यह क्षे. त्र संसार हैं. (३) तथा सर्पणी और उत्सर्पणी काल २० कोटा-कोटी सागरका हैं, उसके एकेक समयमें इस जीवने जन्म मरण किये, यह काल संसार. (४)और क्रोधादी ४ कषायके मनादी त्रियोगके जो प्रकृत्यादी बन्धके भाव हैं, उन्हे अनंत वक्त ग्रहण कर२ के छोददिये. यह भाव संसार, ऐसे ४ प्रकारके संसारमें